हर लड़की को मर्द का स्खलन तृप्ति प्रदान करता है। एक तो इससे उसके गर्भ में सर्जन की क्रिया शुरू होती है और दूसरे, कुछ देर के लिए ही सही, मर्दानगी का पतन होते देखती है। वह कैसा निस्सहाय और कमज़ोर हो जाता है !! प्रगति कृतज्ञता पूर्ण हाथों से मास्टरजी के सिर और पीठ पर हाथ फेर रही थी। उसने अपनी टांगें ऊपर उठा लीं थीं जिससे वीर्य बाहर न जाए और उसकी चूतचूत ने लंड को जकड़ कर रखा था और उसके वीर्य की आख़री बूँद अपने अन्दर निचोड़ रही थी। जब लंड में देने लायक कुछ नहीं बचा तो लालची चूत ने अपनी पकड़ ढीली की और निर्जीव लिंग को बाहर निकाल दिया !! मास्टरजी मूर्छित से पड़े हुए थे। लंड के निष्कासित होने से उन्हें होश आया और वे मम्मों का रस पान करने लगे। धन्यवाद के रूप में उन्होंने प्रगति के मुँह को चूम लिया और उसके बदन को सहलाने लगे।
वे सम्भोग उपरांत सुख का सेवन कर ही रहे थे कि अचानक दरवाज़े की घंटी ने उनकी शांति भंग कर दी। घंटी ऐसे बज रही थी मानो बजाने वाला क्रोध में हो। प्रगति और मास्टरजी झटके से उठ गए। चिंता और घबराहट से दोनों एक दूसरे को देखने लगे। फिर प्रगति अपने कपड़े उठाकर गुसलखाने की तरफ भाग गई और मास्टरजी जल्दी जल्दी कपड़े पहन कर दरवाज़े पर आये दुश्मन का सामना करने चल पड़े।
दरवाज़े पर अंजलि और उसके पिताजी को देख कर मास्टरजी के होश उड़ गए।
” प्रगति को क्या पढ़ा रहे हो ? ” पिताजी ने गुस्से में पूछा।
” जी, क्या हो गया ? ” मास्टरजी ने सवाल का जवाब सवाल से देते हुए अपने आप को संभाला।
” प्रगति कहाँ है ? ”
” जी, अन्दर है !”
” अन्दर क्या कर रही है ? ”
” जी पढ़ने आई थी !”
” उसकी पढ़ाई हो गई। उसे बुलाओ !” कहते हुए पिताजी ने प्रगति को आवाज़ दी।
प्रगति भीगी बिल्ली की भांति आई और नज़रें झुकाए मास्टरजी के पास आ कर खड़ी हो गई।
” घर चलो !” पिताजी ने आदेश दिया। और मास्टरजी की तरफ देख कर चेतावनी दी,” यह तो बच्ची है पर तुम तो समझदार हो। एक जवान लड़की को इस तरह अकेले में पढ़ाते हो ! लोग क्या कहेंगे ?”
मास्टरजी को राहत मिली कि मामला इतना संगीन नहीं है जितना वे सोच रहे थे।
मास्टरजी के जवाब का इंतज़ार किये बगैर पिताजी ने कह दिया,” अब से इस घर में पढ़ाई नहीं होगी। या तो हमारे घर में या स्कूल में, समझे ?”
यह कहते हुए पिताजी दोनों लड़कियों को लेकर अपने घर रवाना हो गए। प्रगति ने जाते जाते एक आख़री बार मास्टरजी की तरफ मायूस आँखों से देखा और फिर पैर पटकती हुई अपने घर को चल दी।
प्रगति के पिताजी को मास्टरजी की नीयत पर शक हो चला था। वर्ना वे सिर्फ प्रगति को अकेले में अपने घर में पढाने के लिए क्यों बुलाते। उन्हें यह भी समझ आ गया कि प्रगति शरीर से अब जवान हो चली थी पर मन अभी भी बच्चों जैसा था। इस लड़कपन की उम्र में अक्सर लड़कियाँ भटक जाती हैं क्योंकि उनके शरीर में जो भौतिक और रासायनिक बदलाव आ रहे होते हैं, उनके चलते वे आसानी से लुभाई जा सकती हैं। उन्हें अपने जिस्म की ज़रूरतें का अहसास होने लगता है और वे समझ नहीं पाती कि उन्हें क्या करना चाहिए। उनके मन में माँ-बाप के दिए दिशा -निर्देश, समाज के लगाये बंधनों और संसकारों की बंदिश एक तरफ रोक रही होती है तो दूसरी तरफ उनके शरीर में उपज रही नई उमंगों और तरंगों का ज्वार-भाटा उन्हें तामसिकता की तरफ खींच रहा होता है। वे इस दुविधा में फँसी रहती हैं कि उनके लिए क्या उचित है और क्या नहीं।
प्रगति के पिताजी ने इसी में भलाई समझी कि उन्हें यह गाँव छोड़ कर कहीं और चले जाना चाहिए जहाँ प्रगति और मास्टरजी का मेल न हो सके और प्रगति नए सिरे से अपना जीवन शुरू कर सके। वे चाहते थे कि प्रगति पढ़-लिख कर इस काबिल बन जाए कि वह अपना और अपने परिवार का ध्यान रख सके। उन्होंने निश्चय कर लिया कि इस गाँव को छोड़ने का समय आ गया है। भाग्यवश, उनके एक मित्र का हैदराबाद से सन्देशा आ गया कि वहाँ एक सरकारी अफसर को एक ऐसे परिवार की ज़रुरत है जो उसके घर का काम, बच्चे की देख-रेख, बगीचे का ध्यान और ड्राईवर का काम, सभी कुछ कर सके। इसके एवज़ में वह परिवार को घर के अलावा, बच्चों के स्कूल का दाखिला, स्कूल का खर्चा और अच्छी तनख्वाह देने को तैयार है। उसे बस एक ईमानदार और संस्कारी परिवार की ज़रुरत है।